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शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

कोसीर गांव का चर्चित रउताही मडाई मेला ...

दैनिक भास्कर की कतरन -आज कोसीर में मेला 
दैनिक अखाबार नव प्रदेश रायपुर में प्रकाशित 
दैनिक अखबार कुशाग्रता रायगढ़ 
साप्ताहिक अखबार -प्रखर आवाज सारंगढ़ 




कोसीर गांव का चर्चित रउताही  मडाई मेला
0 युवा वर्ग दुर हो रहे पारंपारिक राउत नाच से
0 कोसीर में आज   03 जनवरी से 05 जनवरी तक मेला का आयोजन


कोसीर(रायगढ़ ) - छत्तीसगढ की संस्कृति में पूर्वजों की रिती ,निती ,रिवाज आज भी देखने को मिलती है । छत्तीसगढ की संस्कृति में भिन्न भिन्न समुदाय के लोग निवासरत हैं और अपनी-अपनी समुदाय की अलग अलग रीति नीति रिवाज हैं। हर वर्ग की एक अलग पहचान है।विभीन्न समुदाय होने के बाद भी तीज त्यौहार पर्व उत्सव को मिलजुलकर मनाने की परंपरा विद्यमान है। एक दूसरे के सुख दुख आपस में बांटकर समाज में एकरूपता का परिचय देते आ रहे हैं। छत्तीसगढ में अलग-अलग समुदाय के अलग अलग पारंपरिक नृत्य हैं जैसे -अदिवासियों का सरहुल ,मारियों का ककसारपरजा का परब ,उरांवों का डोमकच ,बैगा और गोडों का कर्मा ,डंडा ,सुवा ,लोकनृत्य हैं।यदुवंशियों का रावत नृत्य सतनामियों का पंथी नृत्य प्रचलित है।इस तरह अपने पूर्वजों की रीति नीति रिवाज आज भी देखने सुनने को मिलती है।युवा वर्ग इस रीति नीति रिवाज को उपर उठने की ललक और आधुनिक युग में प्रवेश से भूलते हुये पारंपरिक रिवाजों रीति नीति से दूर होते दिख रहे हैं। कोसीर रायगढ जिले का सबसे बडा गांव है जो रायगढ जिले के अंतिम छोर पश्चिम में बसा है यही नहीं कोसीर इतिहास की दृष्टि से पुरात्विक नगरी है यहां माॅ कौशलेश्वरी देवी की मंदिर है जिसका जिक्र रामायण में भी मिलता है।कोसीर गांव का रउताही  नाच मडाई मेला चर्चित है। आज भी कोसीर की मडाई मेला को देखने के लिये दूर दराज के लोग आते हैं। पूर्वजों की माने तो कोसीर का मडाई मेला का एक अलग पहचान रहा है।यहाॅ विभीन्न समुदाय के लोग निवासरत है जिसमें यादव समुदाय के लोग भी रहते हैं वर्तमान में अब गांव गांव में हाट बाजार हो रहे हैं जिससे छोटे छोटै गांव में मेला मडाई का आयोजन कर उत्सव मनाया जाता है इन्हीं सब नये परिवर्तनों से कोसीर की मडाई मेला में कमी दिखी है पर ग्रामीणों में मेले के आयोजन को सहेजकर रखने का भरपूर प्रयास भी किया है।राउत नाचा एक पारंपरिक नृत्य है जिसका एक अलग पहचान है। राउत नाचा छत्तीसगढ में यादवों के द्वारा किया जाने वाला नृत्य है। भगवान श्री कृष्ण को पूर्वज मानने वाले राउतो का यह नृत्य गहिरा नाच के नाम से भी जाना जाता है।यह नृत्य शौर्य एवं वीरता का कलात्मक प्रदर्शन है।जब इन्द्र ने मूसलाधार बारिश कर गोकुलवासियों को जलमग्न करने का प्रयास किया परंतु कृष्ण ने अपनी कनिष्ट उंगली से गोवर्धन पर्वत को उठा लिया और बृजवासियों की रक्षा की।वह दिन खुशी और उत्साह का दिन रहा तब से उत्सव के रूप में मनाया जा रहा है। राउत नाच देव उठनी एकादशी से प्रारंभ होती है। देव उठनी के दिन यादव किसान के बैल गायों को सुराही बांधकर खुशी व्यक्त करता है और उसी दिन से अपनी पारंपरिक नृत्य गांव के घर घर घूमकर नाच गाकर दोहे द्वारा अपनी शौर्य दिखाता है। राउत नाच पारंपरिक नृत्य है इस नृत्य में यादव समाज विशेष भेष-भूषा पहनकर हाथ में सजी हुई लाठी लेकर टोली में गाते और नाचते हुये निकलते हैं।गांव में प्रत्येक गृहस्वामी के घर में नृत्य प्रदर्शन के पश्चात उनकी समृद्धि की कामना युक्त दोहा गाकर आशीर्वाद देते हैं। टिमकी ,मोहरी ,डफरा ,ढोलक ,ढोल ,निशान ,सिंग बाजा ,आदि इनके वाद्य यंत्र हैं। जब टोली अपने घर से निकलती है तो दोहे बोलते हुये निकलती है-जय मोहबायी मोहबा के ,अखरा के बीज बैताल के ,नौ सौ जोगनी पुरखा के ,भुंजवा में सोहाय हो। ऐसे कई दोहे अपने नृत्य में प्रस्तुत कर अपना शौर्य प्रदर्शन करते है।पैंसठ वर्षीय मामराय यादव से खास मुलाकात में मामराय यादव ने कहा -मोर जब गउना नई होय रहिस तब ले मैं अपन पुरखौती के ये नाचा ला नाचत आवत हवां ,अब हमन थक गेन हमर बेटा मन सम्भाले हावें। फेर आजकल के बाबू मन ये नृृत्य ला भुलत हावें जेला सहेजना चाही।ऐसे कहते हुये कई दोहे गाकर बताये भी जिसमें शौर्य और पीडा झलकी। जैसे -पवन बिना पानी ,चैखट बिना कपाट ,चारों खुरा मा हीरा जलत है धनी बिना अंधियार हो। अपने अनुभवों से परिचय कराये जब नृत्य करते है तो मन में उमंग रहती है अच्छा लगता है और कोसीर का रौताई मेला प्रसिद्ध है। वर्तमान में कुछ कंधों पर पारंपरिक नृत्य की जिम्मेदारी है जिसे सहेजना अति आवश्यक है। कोसीर के मडाई मेला को महोत्सव के रूप में मनाने की आवश्यकता है। इस वर्ष कोसीर मडाई मेला जनवरी से जनवरी तक रखा गया है औश्र नृत्य करने वाले प्रत्येक टोली को ग्राम पंचायत स्तर मे 1001 रूपये पुरस्कार स्वरूप प्रदान करने की घोषणा किया गया है। आनेवाले समय में गांव की मडाई मेला को नये रूप में सहेजने की आवश्यकता है। ब्लाक स्तर में भी प्राथमिकता की जरूरत नजर आती है जिससे राउत नाच की गरिमा बनी रहे और आनेवाली पीढी इसे न भूले। इस पारंपरिक नृत्य को नयी पहचान की आवश्यकता नजर आती है।

0  लक्ष्मी नारायण लहरे युवा साहित्यकार पत्रकार की कलम से

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