कविता
जलता रहा मैं दीपक बनकर .........
न जाने किस विश्वास पर
दिन -रात मैं राह तकता रहा
जलता रहा मैं दीपक बनकर ..........
पर न आयीं तुम हवाएं बनकर
जल गये मेरे अरमान सारे
मन कि अगन प्यास बनकर रह गयी
तन भी मेरे साथ न दिया
मिट गये सपने सारे
जल गये लम्हें प्यारे
न आयीं तू मेरे सपनों में
न आयीं तू मेरे नगमों में
मैं जलाता रहा विश्वास कि आग में
मै तड़पता रहा याद में
मै बन न सका तुम्हारा अपना
क्योकि तुम भूल गयी मेरी नई संवेदना
मैं अकेला हो गया सांवली गांवली........
शायद ,मैं विश्वास पर जलता रहा
पर हो न सका अपना
जलता रहा मै दीपक बनकर
पर बन न सका तेरा अपना
@लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल "
gahan bhavon ki abhivyakti .bahut sundar .
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आदरणीया ,शिखा कौशिक जी सप्रेम अभिवादन
हटाएंहार्दिक आभार .........
गहन भाव/ सहज अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंसंजय भाई हार्दिक आभार ... कोसीर ... ग्रामीण मित्र ! में आपका स्वागत है ,बरसो से आप लोंगो का इंतजार था मेरे भी ब्लॉग का अनुशरण कर उत्साहित करें ...
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