एक घर सपनों की
न जाने मन में कब से बनाकर रखा हूँ
उस घर की दीवार विश्वाश पर टिकी है
मेरे आंसुओं से बनी है उसकी छत
मेरे अरमानो की बगिया सजी है
उस छोटे से घर में
न जाने कितने बरस लगे हैं
कुछ लोगों के झूठे स्नेह
कुछ लोग मजाक उड़ाते हैं
मेरे जज्बात ...को भी
वो हंसी से नहीं ,बल्कि तानें दे - देकर
ऊँची आवाज से चिढाते हैं
उनके अतीत का मैं एक हिस्सा हूँ
शायद भूल गए हैं वो मैं वही टहनी हूँ
जिससे वो अपना
आलिशान महल बनाये हुए हैं
लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल "
नि:शब्द कर दिया आपकी इस कविता ने
जवाब देंहटाएं