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शनिवार, 7 अप्रैल 2012

कविता ... जलता रहा मैं दीपक बनकर ...


कविता 
जलता रहा मैं दीपक बनकर .........
न जाने किस विश्वास पर 
दिन -रात मैं राह  तकता रहा 
जलता रहा मैं दीपक बनकर ..........
पर न आयीं तुम हवाएं बनकर 
जल गये मेरे अरमान सारे 
मन कि अगन प्यास बनकर रह गयी 
तन भी मेरे साथ न दिया 
मिट गये सपने सारे 
जल गये लम्हें प्यारे 
न आयीं तू मेरे सपनों में 
न आयीं तू मेरे नगमों में 
मैं जलाता रहा विश्वास कि आग में 
मै तड़पता रहा याद में 
मै बन न सका  तुम्हारा अपना 
क्योकि तुम भूल गयी मेरी नई संवेदना 
मैं  अकेला हो गया सांवली गांवली........
शायद ,मैं विश्वास पर जलता रहा 
पर हो न सका अपना 
जलता रहा मै दीपक बनकर 
पर बन न सका तेरा अपना 
@लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल "

4 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. आदरणीया ,शिखा कौशिक जी सप्रेम अभिवादन
      हार्दिक आभार .........

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  2. संजय भाई हार्दिक आभार ... कोसीर ... ग्रामीण मित्र ! में आपका स्वागत है ,बरसो से आप लोंगो का इंतजार था मेरे भी ब्लॉग का अनुशरण कर उत्साहित करें ...

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