कविता
जलता रहा मैं दीपक बनकर .........
न जाने किस विश्वास पर
दिन -रात मैं राह तकता रहा
जलता रहा मैं दीपक बनकर ..........
पर न आयीं तुम हवाएं बनकर
जल गये मेरे अरमान सारे
मन कि अगन प्यास बनकर रह गयी
तन भी मेरे साथ न दिया
मिट गये सपने सारे
जल गये लम्हें प्यारे
न आयीं तू मेरे सपनों में
न आयीं तू मेरे नगमों में
मैं जलाता रहा विश्वास कि आग में
मै तड़पता रहा याद में
मै बन न सका तुम्हारा अपना
क्योकि तुम भूल गयी मेरी नई संवेदना
मैं अकेला हो गया सांवली गांवली........
शायद ,मैं विश्वास पर जलता रहा
पर हो न सका अपना
जलता रहा मै दीपक बनकर
पर बन न सका तेरा अपना
@लक्ष्मी नारायण लहरे "साहिल "